एक दरिया पार कर के आ गया हूँ उस के पास
एक सहरा के सिवा अब दरमियाँ कोई नहीं
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ऐ सबा मैं भी था आशुफ़्ता-सरों में यकता
क़सीदा तुझ से ग़ज़ल तुझ से मर्सिया तुझ से
आँखों से टपके ओस तो जाँ में नमी रहे
एक दरख़्त एक तारीख़
किसी ने डूबती सुब्हों तड़पती शामों को
ख़ेमा-ए-याद
गर्द-ए-शोहरत को भी दामन से लिपटने न दिया
बिछ्ड़ें तो शहर भर में किसी को पता न हो
करें न याद वो शब हादिसा हुआ सो हुआ
ख़्वाब ठहरा सर-ए-मंज़िल न तह-ए-बाम कभी
हुस्न के सेहर ओ करामात से जी डरता है
ख़ल्वत-ए-उम्मीद में रौशन है अब तक वो चराग़