ये कारोबार-ए-मोहब्बत है तुम न समझोगे
हुआ है मुझ को बहुत फ़ाएदा ख़सारे में
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ये क्या बद-मज़ाक़ी है गर्द झाड़ते क्यूँ हो
सारे मंज़र हसीन लगते हैं
हँस हँस के उस से बातें किए जा रहे हो तुम
सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी
मुझे क़रार भँवर में उसे किनारे में
मुख़्तसर ही सही मयस्सर है
सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
ख़ूबियों को मस्ख़ कर के ऐब जैसा कर दिया
वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
मुस्तक़र की ख़्वाहिश में मुंतशिर से रहते हैं
हमारी बेचैनी उस की पलकें भिगो गई है