ये क्या बद-मज़ाक़ी है गर्द झाड़ते क्यूँ हो
इस मकान-ए-ख़स्ता में यार हम भी रहते हैं
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तिरे तसव्वुर की धूप ओढ़े खड़ा हूँ छत पर
हँस हँस के उस से बातें किए जा रहे हो तुम
सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
फ़स्ल बोई भी हम ने काटी भी
मुझे क़रार भँवर में उसे किनारे में
मुख़्तसर ही सही मयस्सर है
सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी
ये कारोबार-ए-मोहब्बत है तुम न समझोगे
सच यही है कि बहुत आज घिन आती है मुझे
मुस्तक़र की ख़्वाहिश में मुंतशिर से रहते हैं