तिरे तसव्वुर की धूप ओढ़े खड़ा हूँ छत पर
मिरे लिए सर्दियों का मौसम ज़रा अलग है
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उस के शर से मैं सदा माँगता रहता हूँ पनाह
वा'दा था कब का बार-ए-ख़ुदा सोचने तो दे
अख़ीर-ए-शब सर्द राख चूल्हे की झाड़ लाएँ
वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
मुझे क़रार भँवर में उसे किनारे में
मुझ से कल महफ़िल में उस ने मुस्कुरा कर बात की
हम उस की ख़ातिर बचा न पाएँगे उम्र अपनी
सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी
मुख़्तसर ही सही मयस्सर है
सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
ख़ूबियों को मस्ख़ कर के ऐब जैसा कर दिया
हमारी बेचैनी उस की पलकें भिगो गई है