हम उस की ख़ातिर बचा न पाएँगे उम्र अपनी
फ़ुज़ूल-ख़र्ची की हम को आदत सी हो गई है
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आफ़रीं लुत्फ़-ए-कलाम-ए-यार पर
मुझे क़रार भँवर में उसे किनारे में
मुख़्तसर ही सही मयस्सर है
चिलचिलाती-धूप थी लेकिन था साया हम-क़दम
मुस्तक़र की ख़्वाहिश में मुंतशिर से रहते हैं
हँस हँस के उस से बातें किए जा रहे हो तुम
वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
सच यही है कि बहुत आज घिन आती है मुझे
सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
ये क्या बद-मज़ाक़ी है गर्द झाड़ते क्यूँ हो
ये कारोबार-ए-मोहब्बत है तुम न समझोगे