आफ़रीं लुत्फ़-ए-कलाम-ए-यार पर
है यक़ीं इक़रार का इंकार पर
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तुम्हारे आलम से मेरा आलम ज़रा अलग है
सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी
मुझ से कल महफ़िल में उस ने मुस्कुरा कर बात की
यहाँ पे हँसना रवा है रोना है बे-हयाई
उस के शर से मैं सदा माँगता रहता हूँ पनाह
ख़ूबियों को मस्ख़ कर के ऐब जैसा कर दिया
वा'दा था कब का बार-ए-ख़ुदा सोचने तो दे
रखे रखे हो गए पुराने तमाम रिश्ते
ये कारोबार-ए-मोहब्बत है तुम न समझोगे
हँस हँस के उस से बातें किए जा रहे हो तुम