हँस हँस के उस से बातें किए जा रहे हो तुम
'साबिर' वो दिल में और ही कुछ सोचता न हो
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तुम्हारे आलम से मेरा आलम ज़रा अलग है
मुख़्तसर ही सही मयस्सर है
आफ़रीं लुत्फ़-ए-कलाम-ए-यार पर
वा'दा था कब का बार-ए-ख़ुदा सोचने तो दे
सारे मंज़र हसीन लगते हैं
सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी
तिरे तसव्वुर की धूप ओढ़े खड़ा हूँ छत पर
फ़स्ल बोई भी हम ने काटी भी
वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
हम उस की ख़ातिर बचा न पाएँगे उम्र अपनी
मुस्तक़र की ख़्वाहिश में मुंतशिर से रहते हैं
सच यही है कि बहुत आज घिन आती है मुझे