ऐसा क्या अंधेर मचा है मेरे ज़ख़्म नहीं भरते
लोग तो पारा पारा हो कर जुड़ जाते हैं लम्हे में
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कभी कभी तो अच्छा-ख़ासा चलते चलते
ख़ाली हाथों में मोहब्बत बाँटती रह जाऊँगी
सर-ए-ख़याल मैं जब भूल भी गई कि मैं हूँ
पंक्चुवेशन
बदन और ज़ेहन मिल बैठे हैं फिर से
सुनते रहते हैं फ़क़त कुछ वो नहीं कह सकते
मयस्सर ख़ुद निगह-दारी की आसाइश नहीं रहती
आज सोचा है कि ख़ुद रस्ते बनाना सीख लूँ
पहेली
उस के आने की दुआ होती है दिन भर लेकिन
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