बुतान-ए-हिन्द मिरे दिल में हैं दर आए हुए
ख़ुदा के घर को घर अपना हैं ये बनाए हुए
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किसी महबूब-ए-गंदुम-गूँ की उल्फ़त में गुज़रते हैं
हँस के फूलों को वो करेंगे सुबुक
क्यूँ हो न गिर के कासा-ए-तदबीर पाश पाश
क्यूँकर करूँ मैं तर्क शराब-ओ-कबाब को
हुआ है इश्क़ में कम हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ ऐसा
ख़ुदा की भी नहीं सुनते हैं ये बुत
क्या मिला क़ैस को गर्द-ए-रह-ए-सहरा हो कर
मुझे क्यूँ आज हिचकी आ रही है
न होगा हश्र महशर में बपा क्या
ऐसी तश्बीह फ़क़त हुस्न की बदनामी है
ये बात बात पे ज़ाहिद जो टूट जाता है
जफ़ा-पसंदों को सुनते हैं ना-पसंद हुआ