भूमिका Poetry (page 23)

शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था

ग़ालिब

सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का

ग़ालिब

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं

ग़ालिब

न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा

ग़ालिब

लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले

ग़ालिब

कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए

ग़ालिब

कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया

ग़ालिब

जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार

ग़ालिब

जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं

ग़ालिब

ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ

ग़ालिब

दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई

ग़ालिब

देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है

ग़ालिब

दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ

ग़ालिब

बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए

ग़ालिब

आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त

ग़ालिब

दुखी दिलों में, दुखी साथियों में रहते थे

गौहर होशियारपुरी

हो गए यार पराए अपने

फ़ीरोज़ा ख़ुसरो

ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़

फ़िराक़ गोरखपुरी

मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले

फ़िराक़ गोरखपुरी

मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था

फ़िराक़ गोरखपुरी

तूफ़ाँ से बच के दामन-ए-साहिल में रह गया

फ़िगार उन्नावी

सई-ए-ग़ैर-हासिल को मुद्दआ नहीं मिलता

फ़िगार उन्नावी

हस्ती इक नक़्श-ए-इनइकासी है

फ़िगार उन्नावी

तिरी जुस्तुजू में देखा मैं कहाँ कहाँ से गुज़रा

फ़िगार मुरादाबादी

खुला न मुझ से तबीअत का था बहुत गहरा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

कुछ नया करने की ख़्वाहिश में पुराने हो गए

फ़सीह अकमल

हम तो बस

फर्रुख यार

भटक न जाता अगर ज़ात के बयाबाँ में

फ़ारूक़ नाज़की

उजले माथे पे नाम लिख रक्खें

फ़ारूक़ मुज़्तर

न पानियों का इज़्तिरार शहर में

फ़ारूक़ मुज़्तर

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