हत्या Poetry (page 3)

क़ातिल-ए-बे-चेहरा

सुलैमान अरीब

जान दे कर वफ़ा में नाम किया

सूफ़ी तबस्सुम

वफ़ाओं के इरादे वुसअ'त-ए-मंज़िल में रहते हैं

सोज़ बरेलवी

सनम जब चीरा-ए-ज़र-तार बाँधे

सिराज औरंगाबादी

मुझ दर्द सें यार आश्ना नईं

सिराज औरंगाबादी

मिरा दिल नहीं है मेरे हात तुम बिन

सिराज औरंगाबादी

माइल हूँ गुल-बदन का मुझे गुल सीं क्या ग़रज़

सिराज औरंगाबादी

किया ग़म ने सरायत बे-निहायत

सिराज औरंगाबादी

जब सीं देखा हूँ यार की सूरत

सिराज औरंगाबादी

जानाँ पे जी निसार हुआ क्या बजा हुआ

सिराज औरंगाबादी

हमारा दिलबर-ए-गुलफ़म आया

सिराज औरंगाबादी

दिन-ब-दिन अब लुत्फ़ तेरा हम पे कम होने लगा

सिराज औरंगाबादी

दिल मिरा साग़र-ए-शिकायत है

सिराज औरंगाबादी

आया पिया शराब का प्याला पिया हुआ

सिराज औरंगाबादी

बुल-हवस में भी न था वो बुत भी हरजाई न था

सिद्दीक़ अफ़ग़ानी

ज़र्द चेहरों से निकलती रौशनी अच्छी नहीं

सिब्त अली सबा

जो शाना गेसू-ए-जानाँ में हम कभू करते

शऊर बलगिरामी

जाता है यार सैर को गुलज़ार की तरफ़

शऊर बलगिरामी

बे-सबब वो न मिरे क़त्ल की तदबीर में था

शऊर बलगिरामी

लबों पे अब कोई आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं होती

शोला हस्पानवी

मैं जब्हा सा हूँ उस दर-ए-आली-मक़ाम का

शोला अलीगढ़ी

दिल की इक हर्फ़-ओ-हिकायात है ये भी न सही

शोला अलीगढ़ी

दिल उस से लगा जिस से रूठा भी नहीं जाता

शोहरत बुख़ारी

अदल-ए-जहाँगीरी

शिबली नोमानी

कहाँ तलक कहूँ साक़ी कि ला शराब तो दे

ज़ौक़

हैं दहन ग़ुंचों के वा क्या जाने क्या कहने को हैं

ज़ौक़

चुपके चुपके ग़म का खाना कोई हम से सीख जाए

ज़ौक़

कब चला जाता है 'शहपर' कोई आ के सामने

शहपर रसूल

तंग थी जा ख़ातिर-ए-नाशाद में

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

देखूँ तो कहाँ तक वो तलत्तुफ़ नहीं करता

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

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