समय Poetry (page 17)

फिर तो इस बे-नाम सफ़र में कुछ भी न अपने पास रहा

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

तुझे कल ही से नहीं बे-कली न कुछ आज ही से रहा क़लक़

ग़ुलाम मौला क़लक़

ग़ैर शायान-ए-रस्म-ओ-राह नहीं

ग़ुलाम मौला क़लक़

सुख़न का लहजा गुमान-ख़ाने में रह गया है

ग़ज़नफ़र हाशमी

जुनूँ में देर से ख़ुद को पुकारता हूँ मैं

ग़नी एजाज़

अंदाज़-ए-फ़िक्र अहल-ए-जहाँ का जुदा रहा

ग़नी एजाज़

या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए

ग़ालिब

वो आ के ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे

ग़ालिब

जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई

ग़ालिब

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

ग़ालिब

गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा

ग़ालिब

दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई

ग़ालिब

दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं

ग़ालिब

अजब नशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे

ग़ालिब

जहाँ में ज़र का है कारख़ाना न कोई अपना न है यगाना

जोर्ज पेश शोर

चुप रहे देख के उन आँखों के तेवर आशिक़

फ़ुज़ैल जाफ़री

हो गए यार पराए अपने

फ़ीरोज़ा ख़ुसरो

अब नहीं कोई ठिकाना अपना

फ़ीरोज़ा ख़ुसरो

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है

फ़िराक़ गोरखपुरी

शाम-ए-अयादत

फ़िराक़ गोरखपुरी

हिण्डोला

फ़िराक़ गोरखपुरी

समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है

फ़िराक़ गोरखपुरी

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी

फ़िराक़ गोरखपुरी

जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है

फ़िराक़ गोरखपुरी

'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है

फ़िराक़ गोरखपुरी

चमन अपने रंग में मस्त है कोई ग़म-गुसार-ए-दिगर नहीं

फ़िगार उन्नावी

ख़राब-हाल हूँ हर हाल में ख़राब रहा

फ़ज़लुर्रहमान

ये दौर कैसा है या-इलाही कि दोस्त दुश्मन से कम नहीं है

फ़ाज़िल अंसारी

छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

सुकून-ए-दिल के लिए इश्क़ तो बहाना था

फ़ातिमा हसन

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