हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी
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तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं
जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
कोई समझे तो एक बात कहूँ
सहरा में ज़माँ मकाँ के खो जाती हैं
देख रफ़्तार-ए-इंक़लाब 'फ़िराक़'
आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में 'फ़िराक़'
जब चाँद की वादियों से नग़्मे बरसें
आधी रात
पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
आँखों में जो बात हो गई है
रात भी नींद भी कहानी भी