पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
पानी हचकोले ले के भरता है तरंग
काँधों पे सरों पे दोनों हाथों में कलस
मद अँखड़ियों में सीनों में भरपूर उमंग
Anwar Masood
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Faiz Ahmad Faiz
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अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं
आवाज़ पे संगीत का होता है भरम
ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं
सहरा में ज़माँ मकाँ के खो जाती हैं
हम से क्या हो सका मोहब्बत में
अफ़्लाक पे जब परचम-ए-शब लहराया
कोई समझे तो एक बात कहूँ
क़ामत है कि अंगड़ाइयाँ लेती सरगम
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
आँखें हैं कि पैग़ाम मोहब्बत वाले