तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं
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करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आए
जिस में हो याद भी तिरी शामिल
तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं
वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
ये राज़-ओ-नियाज़ और ये समाँ ख़ल्वत का
किस दर्जा सुकूँ-नुमा हैं अबरू के हिलाल
रोने को तो ज़िंदगी पड़ी है
जिस तरह रगों में ख़ून-ए-सालेह हो रवाँ
जब चाँद की वादियों से नग़्मे बरसें
बहुत हसीन है दोशीज़गी-ए-हुस्न मगर
खुलता ही नहीं हुस्न है पिन्हाँ कि अयाँ