किस दर्जा सकूँ-नुमा हैं अबरू के हिलाल
ख़ैर ओ बरकत के धन लुटाती हुई चाल
जीवन-साथी के आगे देवी बन कर
आती है सुहागनी सजाए हुए थाल
Rahat Indori
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ऐ मअनी-ए-काइनात मुझ में आ जा
किस लिए कम नहीं है दर्द-ए-फ़िराक़
इश्क़ अब भी है वो महरम-ए-बे-गाना-नुमा
निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या
पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए
सुना तो है कि कभी बे-नियाज़-ए-ग़म थी हयात
हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है
रात भी नींद भी कहानी भी
जब चाँद की वादियों से नग़्मे बरसें
आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
हिण्डोला