ऐ मअनी-ए-काइनात मुझ में आ जा
ऐ राज़-ए-सिफ़ात-ओ-ज़ात मुझ में आ जा
सोता संसार झिलमिलाते तारे
अब भीग चली है रात मुझ में आ जा
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ये राज़-ओ-नियाज़ और ये समाँ ख़ल्वत का
प्रेमी को बुख़ार उठ नहीं सकती है पलक
क्या तेरे ख़याल ने भी छेड़ा है सितार
तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है
क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल
ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो
आधी रात
वक़्त-ए-पीरी दोस्तों की बे-रुख़ी का क्या गिला