प्रेमी को बुख़ार उठ नहीं सकती है पलक
बैठी है सिरहाने माँद मुखड़े की दमक
जलती हुई पेशानी पे रख देती है हाथ
पड़ जाती है बीमार के दिल में ठंडक
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हर जल्वे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम
मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ
कोमल पद-गामिनी की आहट तो सुनो
रोने वाले हुए चुप हिज्र की दुनिया बदली
'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है
माइल-ए-बेदाद वो कब था 'फ़िराक़'
वक़्त-ए-पीरी दोस्तों की बे-रुख़ी का क्या गिला
खुलता ही नहीं हुस्न है पिन्हाँ कि अयाँ
जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की
इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में