माइल-ए-बेदाद वो कब था 'फ़िराक़'
तू ने उस को ग़ौर से देखा नहीं
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खोते हैं अगर जान तो खो लेने दे
मज़हब की ख़राबी है न अख़्लाक़ की पस्ती
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
इश्क़ अब भी है वो महरम-ए-बे-गाना-नुमा
निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या
तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
प्रेमी को बुख़ार उठ नहीं सकती है पलक
आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
रोने वाले हुए चुप हिज्र की दुनिया बदली
'ईसा' के नफ़्स में भी ये एजाज़ नहीं