इश्क़ अब भी है वो महरम-ए-बे-गाना-नुमा
हुस्न यूँ लाख छुपे लाख नुमायाँ हो जाए
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जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
जुगनू
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
वो पेंग है रूप में कि बिजली लहराए
शामें किसी को माँगती हैं आज भी 'फ़िराक़'
उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
ख़ुद मुझ को भी ता-देर ख़बर हो नहीं पाई
आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
पाते जाना है और न खोते जाना