जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
जिस तरह घटा में एक कौंदा बल खाए
बर्माए फ़ज़ा को जैसे इक चंद्र किरन
यूँही शाम-ए-फ़िराक़ तेरी याद आए
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जिस तरह रगों में ख़ून-ए-सालेह हो रवाँ
उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
कुछ न पूछो 'फ़िराक़' अहद-ए-शबाब
रोने को तो ज़िंदगी पड़ी है
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए
ऐ मअनी-ए-काइनात मुझ में आ जा
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक