जिस तरह रगों में ख़ून-ए-सालेह हो रवाँ
जिस तरह हयात का है मरकज़ रग-ए-जाँ
जिस तरह जुदा नहीं वजूद ओ मौजूद
कुछ इस से ज़्यादा क़ुर्ब ऐ जान-ए-जहाँ
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आँखें हैं कि पैग़ाम मोहब्बत वाले
इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया
माँ और बहन भी और चहेती बेटी
वो पेंग है रूप में कि बिजली लहराए
जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
रस्म-ओ-राह-ए-दहर क्या जोश-ए-मोहब्बत भी तो हो
कोई आया न आएगा लेकिन
ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा उसी का है जहाँ में तुझ को
तू हाथ को जब हाथ में ले लेती है