वो पेंग है रूप में कि बिजली लहराए
वो रस आवाज़ में कि अमृत ललचाए
रफ़्तार में वो लचक पवन रस बल खाए
गेसू में वो लटक कि बादल मँडलाये
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करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आए
फूलों की सुहाग सेज ये जोबन रस
ये राज़-ओ-नियाज़ और ये समाँ ख़ल्वत का
रक्षा-बंधन की सुब्ह रस की पुतली
इश्क़ फिर इश्क़ है जिस रूप में जिस भेस में हो
पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं
देख रफ़्तार-ए-इंक़लाब 'फ़िराक़'
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
अफ़्लाक पे जब परचम-ए-शब लहराया
जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है