रक्षा-बंधन की सुब्ह रस की पुतली
छाई है घटा गगन पे हल्की हल्की
बिजली की तरह लचक रहे हैं लच्छे
भाई के है बाँधी चमकती राखी
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जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
साँस लेती है वो ज़मीन 'फ़िराक़'
कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है
ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया
कहती हैं यही तेरी निगाहें ऐ दोस्त
क़तरे अरक़-ए-जिस्म के मोती की लड़ी
इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
वो रातों-रात 'सिरी-कृष्ण' को उठाए हुए
सुना तो है कि कभी बे-नियाज़-ए-ग़म थी हयात
तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
वो चेहरा सुता हुआ वो हुस्न-ए-बीमार