साग़र कफ़-ए-दस्त में सुराही ब-बग़ल
काँधे पे गेसुओं के काले बादल
ये मध-भरी आँख ये निगाहें चंचल
है पैकर-ए-नाज़नीं कि 'हाफ़िज़' की ग़ज़ल
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सुनते हैं इश्क़ नाम के गुज़रे हैं इक बुज़ुर्ग
कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है
क़तरे अरक़-ए-जिस्म के मोती की लड़ी
तू याद आया तिरे जौर-ओ-सितम लेकिन न याद आए
चढ़ती हुई नद्दी है कि लहराती है
वो चेहरा सुता हुआ वो हुस्न-ए-बीमार
मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं
आँखें हैं कि पैग़ाम मोहब्बत वाले
सितारों से उलझता जा रहा हूँ
इश्क़ फिर इश्क़ है जिस रूप में जिस भेस में हो
दीदार में इक-तरफ़ा दीदार नज़र आया
ज़िंदगी दर्द की कहानी है