वो चेहरा सुता हुआ वो हुस्न-ए-बीमार
बेचैनी की रूह को भी आता था प्यार
देखा है कर्ब के भी आलम में तुझे
होता था सुकून लाख जानों से निसार
Anwar Masood
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जो रंग उड़ा वो रंग आख़िर लाया
उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए
खुलता ही नहीं हुस्न है पिन्हाँ कि अयाँ
कह दिया तू ने जो मा'सूम तो हम हैं मा'सूम
निखरे बदन का मुस्कुराना है है
कोई आया न आएगा लेकिन
'ईसा' के नफ़्स में भी ये एजाज़ नहीं
तुम इसे शिकवा समझ कर किस लिए शरमा गए
ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया
करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आए
मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले