मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं
वही अंदाज़-ए-जहान-ए-गुज़राँ है कि जो था
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'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में
सोते जादू जगाने वाले दिन हैं
पाल ले इक रोग नादाँ ज़िंदगी के वास्ते
जुगनू
हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
चढ़ती हुई नद्दी है कि लहराती है
ऐ मअनी-ए-काइनात मुझ में आ जा
शाम-ए-अयादत
जिन की ज़िंदगी दामन तक है बेचारे फ़रज़ाने हैं
पाते जाना है और न खोते जाना
जुदाई