'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में
कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में
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ख़ुद मुझ को भी ता-देर ख़बर हो नहीं पाई
बहुत हसीन है दोशीज़गी-ए-हुस्न मगर
ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
देवताओं का ख़ुदा से होगा काम
आँखों में वो रस जो पत्ती पत्ती धो जाए
गेसू बिखरे हुए घटाएँ बे-ख़ुद
कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
पाल ले इक रोग नादाँ ज़िंदगी के वास्ते
मौत का भी इलाज हो शायद
इश्क़ अभी से तन्हा तन्हा
ग़म तिरा जल्वा-गह-ए-कौन-ओ-मकाँ है कि जो था