तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी
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बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
गेसू बिखरे हुए घटाएँ बे-ख़ुद
नभ-मंडल गूँजता है तेरे जस से
माँ और बहन भी और चहेती बेटी
इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में
उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
शाम-ए-अयादत
दीदार में इक-तरफ़ा दीदार नज़र आया
गुल हैं कि रुख़-ए-गर्म के हैं अंगारे
किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी
इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से
रस्म-ओ-राह-ए-दहर क्या जोश-ए-मोहब्बत भी तो हो