नभ-मंडल गूँजता है तेरे जस से
गुलशन खिलते हैं ग़म के ख़ार-ओ-ख़स से
संसार में ज़िंदगी लुटाता हुआ रूप
अमृत बरस रहा है जौबन-रस से
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प्रेमी को बुख़ार उठ नहीं सकती है पलक
आँखें हैं कि पैग़ाम मोहब्बत वाले
मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ
हो के सर-ता-ब-क़दम आलम-ए-असरार चला
कोई समझे तो एक बात कहूँ
माइल-ए-बेदाद वो कब था 'फ़िराक़'
फूलों की सुहाग सेज ये जोबन रस
किस दर्जा सुकूँ-नुमा हैं अबरू के हिलाल
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
क्या जानिए मौत पहले क्या थी
अब याद-ए-रफ़्तगाँ की भी हिम्मत नहीं रही
'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है