अब याद-ए-रफ़्तगाँ की भी हिम्मत नहीं रही
यारों ने कितनी दूर बसाई हैं बस्तियाँ
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कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
जिन की ज़िंदगी दामन तक है बेचारे फ़रज़ाने हैं
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
सानी नहीं तेरा न कोई तेरी मिसाल
हर साँस में गुलज़ार से खिल जाते थे
आज़ादी
लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है
रोने वाले हुए चुप हिज्र की दुनिया बदली
जिस में हो याद भी तिरी शामिल
हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है
क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन
करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आए