अब तो उन की याद भी आती नहीं
कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ
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कोमल पद-गामिनी की आहट तो सुनो
रस्म-ओ-राह-ए-दहर क्या जोश-ए-मोहब्बत भी तो हो
लचका लचका बदन मुजस्सम है नसीम
क्या तेरे ख़याल ने भी छेड़ा है सितार
वक़्त-ए-पीरी दोस्तों की बे-रुख़ी का क्या गिला
छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं
माँ और बहन भी और चहेती बेटी
रोने को तो ज़िंदगी पड़ी है
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
खोते हैं अगर जान तो खो लेने दे
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
आँखों में जो बात हो गई है