आँखों में जो बात हो गई है
इक शरह-ए-हयात हो गई है
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इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से
सहरा में ज़माँ मकाँ के खो जाती हैं
निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या
हर साज़ से होती नहीं ये धुन पैदा
आँखें हैं कि पैग़ाम मोहब्बत वाले
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
ग़ुंचे को नसीम गुदगुदाए जैसे
धीमा धीमा सा नूर जैसे तह-ए-साज़
नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं
तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया