हर साज़ से होती नहीं ये धुन पैदा
होता है बड़े जतन से ये गुन पैदा
मीज़ान-ए-नशात-ओ-ग़म में सदियों तुल कर
होता है हयात में तवाज़ुन पैदा
Wasi Shah
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Faiz Ahmad Faiz
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सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
क़ामत है कि अंगड़ाइयाँ लेती सरगम
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
आ जा कि खड़ी है शाम पर्दा घेरे
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात ओ ममात की
जब किरनें हिमालिया की चोटी गूँधें
आँखें हैं कि पैग़ाम मोहब्बत वाले
नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में