जब किरनें हिमालिया की चोटी गूँधें
सोए हुए आबशार आँखें खोलें
जब कंचन नीर सी झलकती हो फ़ज़ा
ऐसे में काश तिरी आहट पाएँ
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परछाइयाँ
ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
क्या जानिए मौत पहले क्या थी
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
जिस तरह असावरी के दिल की धड़कन
ज़ुल्मत ओ नूर में कुछ भी न मोहब्बत को मिला
हर जल्वे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
वो पेंग है रूप में कि बिजली लहराए
किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी
अब याद-ए-रफ़्तगाँ की भी हिम्मत नहीं रही
मैं देर तक तुझे ख़ुद ही न रोकता लेकिन
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'