जब रात गए सुहाग करती है निगाह
दिल में शब-ए-माह के उतरती है निगाह
रतनार नैन से फूटती हैं किरनें
या काहकशाँ की माँग भरती है निगाह
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पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए
आज़ादी
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
गेसू बिखरे हुए घटाएँ बे-ख़ुद
तू हाथ को जब हाथ में ले लेती है
ऐ मअनी-ए-काइनात मुझ में आ जा
मौत का भी इलाज हो शायद
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
हो के सर-ता-ब-क़दम आलम-ए-असरार चला
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
खुलता ही नहीं हुस्न है पिन्हाँ कि अयाँ