खोते हैं अगर जान तो खो लेने दे
ऐसे में जो हो जाए वो हो लेने दे
एक उम्र पड़ी हैं सब्र भी कर लेंगे
इस वक़्त तो जी भर के रो लेने दे
Parveen Shakir
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Gulzar
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महताब में सुर्ख़ अनार जैसे छूटे
हम से क्या हो सका मोहब्बत में
इस दौर में ज़िंदगी बशर की
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
ये शोला-ए-हुस्न जैसे बजता हो सितार
ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं
ऐ सोज़-ए-इश्क़ तू ने मुझे क्या बना दिया
क़तरे अरक़-ए-जिस्म के मोती की लड़ी
जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा उसी का है जहाँ में तुझ को
जब रात गए सुहाग करती है निगाह