महताब में सुर्ख़ अनार जैसे छूटे
या क़ौस-ए-क़ुज़ह लचक के जैसे टूटे
वो क़द है कि भैरवीं सुनाए जब सुब्ह
गुलज़ार-ए-इश्क़ से नर्म कोंपल फूटे
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बद-गुमाँ हो के मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे
वो चेहरा सुता हुआ वो हुस्न-ए-बीमार
आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था
धीमा धीमा सा नूर जैसे तह-ए-साज़
रोने को तो ज़िंदगी पड़ी है
गेसू बिखरे हुए घटाएँ बे-ख़ुद
किस लिए कम नहीं है दर्द-ए-फ़िराक़
मैं देर तक तुझे ख़ुद ही न रोकता लेकिन
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की
तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल