इस दौर में ज़िंदगी बशर की
बीमार की रात हो गई है
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ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले
अफ़्लाक पे जब परचम-ए-शब लहराया
कोई समझे तो एक बात कहूँ
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
खोते हैं अगर जान तो खो लेने दे
चढ़ती हुई नद्दी है कि लहराती है
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम
दोशीज़ा-ए-बहार मुस्कुराए जैसे