कोई समझे तो एक बात कहूँ
इश्क़ तौफ़ीक़ है गुनाह नहीं
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तिरी निगाह सहारा न दे तो बात है और
शाम-ए-अयादत
रस्म-ओ-राह-ए-दहर क्या जोश-ए-मोहब्बत भी तो हो
तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
माँ और बहन भी और चहेती बेटी
परछाइयाँ
आँखों में जो बात हो गई है
आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में 'फ़िराक़'
पाते जाना है और न खोते जाना
शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
कुछ न पूछो 'फ़िराक़' अहद-ए-शबाब
ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं