आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में 'फ़िराक़'
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए
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ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
साग़र कफ़-ए-दस्त में सुराही ब-बग़ल
तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल
तूर था का'बा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
आँखें हैं कि पैग़ाम मोहब्बत वाले
वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई
सहरा में ज़माँ मकाँ के खो जाती हैं
दिल-दुखे रोए हैं शायद इस जगह ऐ कू-ए-दोस्त
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन