कुछ न पूछो 'फ़िराक़' अहद-ए-शबाब
रात है नींद है कहानी है
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कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है
ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं
इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
सुनते हैं इश्क़ नाम के गुज़रे हैं इक बुज़ुर्ग
फूलों की सुहाग सेज ये जोबन रस
दिल-दुखे रोए हैं शायद इस जगह ऐ कू-ए-दोस्त
किस लिए कम नहीं है दर्द-ए-फ़िराक़
क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन
माँ और बहन भी और चहेती बेटी
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आए