ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं
तिरी निगाह-ए-करम का घना घना साया
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क्या तेरे ख़याल ने भी छेड़ा है सितार
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
किस दर्जा सुकूँ-नुमा हैं अबरू के हिलाल
समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है
लुत्फ़-सामाँ इताब-ए-यार भी है
मैं मुद्दतों जिया हूँ किसी दोस्त के बग़ैर
सितारों से उलझता जा रहा हूँ
तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो
रोने को तो ज़िंदगी पड़ी है
शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
गुल हैं कि रुख़-ए-गर्म के हैं अंगारे
हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है