ज़ब्त कीजे तो दिल है अँगारा
और अगर रोइए तो पानी है
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ग़ुंचे को नसीम गुदगुदाए जैसे
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
निखरे बदन का मुस्कुराना है है
इश्क़ अब भी है वो महरम-ए-बे-गाना-नुमा
कौन ये ले रहा है अंगड़ाई
अपने ग़म का मुझे कहाँ ग़म है
मज़हब की ख़राबी है न अख़्लाक़ की पस्ती
पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
रक्षा-बंधन की सुब्ह रस की पुतली
तेज़ एहसास-ए-ख़ुदी दरकार है
अब याद-ए-रफ़्तगाँ की भी हिम्मत नहीं रही