इनायत की करम की लुत्फ़ की आख़िर कोई हद है
कोई करता रहेगा चारा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर कब तक
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हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया
जिन की ज़िंदगी दामन तक है बेचारे फ़रज़ाने हैं
अमृत वो हलाहल को बना देती है
वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई
सहरा में ज़माँ मकाँ के खो जाती हैं
जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
ये ज़िल्लत-ए-इश्क़ तेरे हाथों
मुखड़ा देखें तो माह-पारे छुप जाएँ
मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था
गुल हैं कि रुख़-ए-गर्म के हैं अंगारे
निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या
देवताओं का ख़ुदा से होगा काम