अमृत वो हलाहल को बना देती है
ग़ुस्से की नज़र फूल खिला देती है
माँ लाडली औलाद को जैसे ताड़े
किस प्यार से प्रेमी को सज़ा देती है
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जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है
अफ़्सुर्दा फ़ज़ा पे जैसे छाया हो हिरास
इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से
ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ
ऐ रूप की लक्ष्मी ये जल्वों का राग
माइल-ए-बेदाद वो कब था 'फ़िराक़'
करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आए
ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
आवाज़ पे संगीत का होता है भरम
यूँ इश्क़ की आँच खा के रंग और खिले
गुल हैं कि रुख़-ए-गर्म के हैं अंगारे