बन-बासियों में जलवा-ए-गुलशन ले कर
तारीकियों में शोला-ए-ऐमन ले कर
वो हँसती हुई रूप की देवी आई
काँटों में खिले फूल सा जौबन ले कर
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माइल-ए-बेदाद वो कब था 'फ़िराक़'
नभ-मंडल गूँजता है तेरे जस से
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
परछाइयाँ
शाम-ए-अयादत
बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं
न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद
मुखड़ा देखें तो माह-पारे छुप जाएँ
समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है
पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
जब चाँद की वादियों से नग़्मे बरसें