कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
जुनूँ का नाम उछलता रहा ज़माने में
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नभ-मंडल गूँजता है तेरे जस से
एक रंगीनी ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर
जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ
मैं देर तक तुझे ख़ुद ही न रोकता लेकिन
इस दौर में ज़िंदगी बशर की
पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए
दौर-ए-आग़ाज़-ए-जफ़ा दिल का सहारा निकला
अमृत वो हलाहल को बना देती है
क़तरे अरक़-ए-जिस्म के मोती की लड़ी
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए