जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ
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किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
मुखड़ा देखें तो माह-पारे छुप जाएँ
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है
तू हाथ को जब हाथ में ले लेती है
कहती हैं यही तेरी निगाहें ऐ दोस्त
कोई आया न आएगा लेकिन
गेसू बिखरे हुए घटाएँ बे-ख़ुद
समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है
'ईसा' के नफ़्स में भी ये एजाज़ नहीं
जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है
आज़ादी