लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है
उछल रहा है ज़माने में नाम-ए-आज़ादी
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सानी नहीं तेरा न कोई तेरी मिसाल
ये ज़िल्लत-ए-इश्क़ तेरे हाथों
तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो
जिस तरह नद्दी में एक तारा लहराए
फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन
तिरी निगाह सहारा न दे तो बात है और
हर जल्वे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए
क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन
कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है